नई सरकार के मंत्रिमंडल में फिर मुस्लिमों की उपेक्षा, वोटों की राजनीति कब तक
मुंबई। एक बार फिर भाजपा की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग की सरकार केंद्र में बन गई है। इस बार सहयोगी दलों को भी अच्छा हिस्सा मिला है। कारण यही है कि दो बार लगातार खुद बहुमत पाने वाले नरेंद्र मोदी ने यह कभी सपने में नहीं सोचा था कि उन्हें भी कभी हार का सामना करना पड़ेगा। इसलिए दो बार सहयोगी दलों का हिस्सा बहुत कम था। लेकिन इस बार बाजी पलट गई है। ऐसे में भाजपा और उसके नरेंद्र मोदी के सामने अब सही मायने में गठबंधन चलाने की ताकत दिखानी होगी।
लगातार सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले मोदी ने इस बार इतने बड़े जंबो मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम सांसद को मंत्री नहीं बनाया है। सोचिए जिस 140 करोड़ की आबादी का वो अपने आप को वजीरेआजम बताते हैं, उस आबादी का करीब 15 फीसदी हिस्से का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। यानी सबका साथ सबका विकास एक खोखला नारा की तरह गढ़ा गया है।
इस देश में मुस्लिम हो, सिख हो या इसाई हो, सभी मिलकर देश की 140 करोड़ की आबादी में अपना योगदान करते हैं। देश के विकास की बात हो या किसी भी तरह की बात हो, किसी एक समुदाय विशेष को इस तरह से उपेक्षित कर सरकार नहीं चलाई जा सकती है। इस हिस्सेदारी से सीधे सीधे यह मतलब निकल रहा है कि भाजपा या उसके सहयोगी दलों को मुस्लिमों से कोई लेना देना नहीं है।
जब भी चुनाव आते हैं, वोट पाने के लिए यही भाजपा और मोदी तरह तरह के नारे और लालच देते हैं। इसी चुनाव में इन लोगों ने जितना हिंदू मुस्लिम किया, शायद उसी का नतीजा है कि इनको सबक सिखाया गया है। यूपी जैसे बड़े राज्य में सीटें घटने से इस बार भाजपा को ऐसा लगा है कि वह भी हार सकती है।
भाजपा ने जिस तरह से 400 पार का झूठा नारा दिया था, वह नारा भी इसका फिसड्डी साबित रहा है। गठबंधन तो छोड़िए, खुद भाजपा भी इस बार बहुमत से काफी दूर रही है। यह वही भाजपा है, जो नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक जीवन में कभी हार नहीं मानते थे। यह पहली मर्तबा है, जब उनको हार माननी पड़ी है। अमेठी जैसी सीट से स्मृति इरानी की हार ने यह साबित कर दिया है कि पब्लिक बहुत लंबे समय तक छलावे में नहीं आ सकती है।
अव्वल तो यह है कि अगर राहुल गांधी या प्रियंका गाँधी बनारस की सीट से लड़ते को नरेंद्र मोदी को भी हार का सामना करना पड़ सकता था। यह अलग बात है कि अजय राय ने ही मोदी को कड़ी टक्कर दी और उनकी 4.5 लाख की जीत कम होकर महज 1.5 लाख ही रह गई। जबकि ईरानी को गांधी घराने के एक मामूली नेता ने ही हरा दिया।
भारत जैसे विविधताओं वाले देश में इस तरह की राजनीति से ही नरेंद्र मोदी का कद इतना बड़ा हुआ है। लेकिन अब देर से ही सही, उनकी इस धुरी का प्रकाश धीरे धीरे कम होता जा रहा है। अब उनको भी पता है कि इस तरह की राजनीति का कुछ नहीं होना है। पूरे चुनाव में उन्होंने अपने 10 साल के कामकाज के नाम पर कभी वोट नहीं मांगा। कांग्रेस की बुराई और हिंदू मुस्लिम करने के साथ ही धमकी भरे अंदाज में उन्होंने वोट मांगा। उनकी आखिरी रैली में भला कौन भूल सकता है कि कांग्रेस हमारे पीछे न पड़े वरना सात पुश्तों की पोल खोल दूंगा। जिस नेहरू का मोदी रिकार्ड बराबरी कर रहे हैं, उसी नेहरू को उन्होंने गाली भी दी है। ऐसे में नरेंद्र मोदी अब वो करिश्मे से बाहर आ गए हैं, जिस करिश्मे के बल पर वो अजेय बना रहना चाहते थे।

