जिसकी जाति में सरनेम ना हो, समझ लीजिए वो पक्का बिहारी है

मुंबई– देश में बिहार भले ही एक पिछड़ा राज्य या बीमारू राज्य रहा हो और दशकों तक यहां लालू यादव की सत्ता रही हो, लेकिन हाल के चुनाव ने यहां एक और नई चर्चा को तेज कर दिया है। यह चर्चा थी कि बिहारी सरनेम लगाने में क्यों परहेज करते हैं? जबकि सरनेम से किसी की जाति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

पिछले 15 सालों से कुर्सी संभाल रहे नीतिश कुमार एक बार फिर ताजपोशी के लिए तैयार हैं। हालांकि यह उनका आखिरी चुनाव भी है। साथ ही इस बार उनकी सीटें उनके सहयोगी दल भाजपा से कम आई हैं। अब अगर वे मुख्यमंत्री बनते हैं तो यह भाजपा का बड़प्पन होगा कि ज्यादा सीटों के बाद भी वह नीतिश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने पर राजी है।

मुंबई, दिल्ली या अन्य शहरों में जो बिहारी हैं उनसे जाति पूछिए तो वे अपने नाम के आगे सुमन, निरूपम या फिर केवल नाम बता देंगे। आप उनकी जाति का अनुमान नहीं लगा पाएंगे। और किसी भी व्यक्ति से जाति पूछना ठीक उसी तरह की गलती है जैसे आप किसी से उसकी सैलरी पूछ लें। यह दोनों एक अपराध सा सामने वाले व्यक्ति को लगता है।

बिहार में वैसे राजनीति का मतलब जाति होता है। फॉरवर्ड, बैकवर्ड, दलित, महादलित आदि। यह नासूर न केवल राजनीति में बल्कि सारे समाज में फैल चुका है। किसी के नाम के आगे अगर उसका सरनेम गायब हो तो समझ लीजिए कि वह पक्का बिहारी है। पर यह गारंटी नहीं है कि सरनेम न बताने वाले जात पात को नहीं मानते हैं।

यह एक ताबीज भी हो सकता है, जिसे वे जातिवाद के जहर से बचने के लिए कवच के रूप में इस्तेमाल करते हों। न जाति पता चलेगी और न दूसरी जाति के लोग परेशान करेंगे। मुक्तिबोध राजनांदगांव की जगह अगर रोहतास में होते तो छूटते ही पूछते, तुम्हारी जाति क्या है पार्टनर? लालू यादव जाति राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। उनका भूरा बाल साफ करने का फकरा याद है?

लालू यादव के भूरा बाल का मतलब था भूमिहार, राजपूत, ब्राम्हण और ल से लाला था। लालू यादव बिहार के मंझे खिलाड़ी हैं। वे यूपी के मुलायम सिंह यादव या महाराष्ट्र के शरद पवार के बराबर कद रखते हैं। यह अलग बात है कि चारा घोटाले समेत अनेक घोटाले में वे जेल में हैं। अब उनके बेटे तेजस्वी यादव महज 31 साल की उम्र में उनकी परिपाटी और छवि से बाहर निकलकर भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को पीछे छोड़ रहे हैं। महज 11 सीटों से पिछड़ गए तेजस्वी वैसे अपनी एक नींव तैयार कर लिए हैं। उनसे पार पाना आगे सभी के लिए मुश्किल है।

तेजस्वी रोजगार, विकास जैसे मुद्दों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं जो जाति पाति से बाहर निकलने की कला है। उनके सामने अभी एक लंबा विशाल राजनीतिक करियर है। भाजपा के नरेंद्र मोदी या अमित शाह का राजनीतिक करियर 5-10 साल का हो सकता है, लेकिन तेजस्वी के पास कम से कम 40-45 साल का करियर है। ऐसे में अगर आने वाले समय में वे बिहार के पुराने लालू की तरह सत्ता में जम जाएं तो इसे कोई जादू या किस्मत नहीं माननी चाहिए।

बिहार के लोग वैसे जितने जीनियस माने जाते हैं, उतने जीनियस आपको कहीं नहीं मिलेंगे। पर वहां की राजनीति और नेताओं ने इस जीनियस को पीछे कर दिया है। बिहार नालंदा, मिथिला, पाटलिपुत्र जैसे शब्दों से लेकर एक ऐसी धरोहर को संजोए रखा है कि उसका हर तरफ उपयोग हो सकता है। लेकिन नेताओं और जाति पाति ने बिहार को अब तक पिछड़े राज्यों की लिस्ट में खड़ा किया है। नीतिश कुमार अच्छे मुख्यमंत्री हो सकते हैं, पर विकास, रोजगार और बिहार को नए रास्ते पर ले जाने के मामले में वे पीछे हैं। यहां तक कि गुंडागर्दी, हफ्ता वसूली, रंगदारी और माफिया जैसे मुद्दे अभी भी बिहार में प्रमुख हैं।  

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