अब दालों ने रसोई की बढ़ाई मुश्किलें, अरहर दाल 31 पर्सेंट तक हो गई महंगी
मुंबई- दाल की बढ़ती कीमतों ने सरकार की टेंशन बढ़ा दी है। सरकार को चिंता है कि कुछ लोग दालों की कीमतों में हेराफेरी कर रहे हैं। अरहर दाल की कीमतों में एक साल में ही 31 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है। सिर्फ अरहर दाल ही नहीं, उड़द दाल की कीमतों में भी करीब 15 फीसदी का इजाफा हुआ है।
मसूर दाल की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई है। सरकार को चिंता है कि बिचौलिए दाल की बोरियों का भंडारण कर रहे हैं। वे इसे गोदामों या दुकानों में जमा कर रहे हैं। सप्लाई सीमित कर रहे हैं। लाजिमी है कि आपूर्ति में कमी से कीमतें बढ़ेंगी। इससे महंगाई बढ़ेगी, जो अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है। इसे आम होने से रोकने के लिए सरकार औचक जांच करने की तैयारी में है। वह व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं से नियमित रूप से अपने दाल के स्टॉक की जानकारी देने का अनुरोध भी कर सकती है।
भारत में दालों का बहुत ज्यादा प्रचलन है। खासतौर पर तुअर यानी अरहर दाल का। यह ग्रामीण और शहरी दोनों ही घरों में सबसे ज्यादा खाई जाने वाली दाल है। लेकिन, समस्या यह है कि हम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा यह कोई हाल की बात नहीं है। किसान लंबे समय से दालों के बजाय चावल और गेहूं को प्राथमिकता देते रहे हैं। यह कई दशकों से होता आ रहा है।
उदाहरण के लिए 1951 से 2008 तक दालों का उत्पादन केवल 45 फीसदी बढ़ा। इसके उलट गेहूं के उत्पादन में 1951 से 2008 के दौरान 320 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। किसान बड़ी मात्रा में दालों की खेती करने में रुचि नहीं रखते थे। इसका एक कारण दोनों फसलों के बीच पैदावार में अंतर भी है। दालों से प्रति हेक्टेयर 800 किलोग्राम उत्पादन होता है। जबकि गेहूं से 3,000 किलोग्राम से अधिक उत्पादन होता है।
किसानों ने सोयाबीन की लाभकारी फसल की ओर भी रुख किया। जल्द ही उत्तर भारत के वे राज्य, जो परंपरागत रूप से दालें उगाते थे, कम लोकप्रिय होने लगे। नतीजा यह हुआ कि देश 1981 से दालों का आयात कर रहा है। हमारी वार्षिक मांग का लगभग 10 फीसदी तंजानिया, मोजाम्बिक और म्यांमार जैसे देशों से प्राप्त होता है।