क्या मोदी सरकार का कृषि सुधार फूड ट्रेड में भारत को विश्व का लीडर बना पाएगा?

मुंबई– नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत के बाजारों में जान फूंकने के लिए जितने भी विवादित सुधार लागू की है, उनमें से हाल ही में किसानों की फसल को फ्री मार्केट देने के लिए लाया गया कानून लंबे समय में असर डाल सकता है। इस कानून का लागू होने से पहले ही इसका विरोध शुरू हो गया है। पिछले महीने संसद में काफी हंगामे के बीच तीन कानून पास किए गए। इसके बारे में सरकार का कहना है कि यह भारत को वैश्विक खाद्य व्यापार में एक मुकाम हासिल करा सकता है। जबकि कानून के विरोधियों ने इसे लाखों करोड़ों किसानों के सपनों को कुचल देने वाला बताया है। कानून पास होते ही किसान संगठनों ने विरोधी दलों के नेताओं के साथ विरोध रैलियों का तांता लगा दिया।  

किसानों को उनकी उपज के लिए मुक्त बाजार उपलब्ध कराने का मतलब यह है कि इससे देश के सीधे-सीधे 1.37 अरब लोग प्रभावित होंगे। जबकि इससे पहले किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए कुछ खास किस्म के बाजार ही उपलब्ध होते थे। अगर भारत सरकार अपने मकसद में कामयाब होती है तो आनेवाले दिनों में यह देश एक बहुत बड़ा खाद्य निर्यातक (फूड एक्सपोर्टर) बन सकता है। कृषि क्षेत्र में सेवा प्रदान करने वाली नेशनल कोलैटरल सर्विसेस मैनेजमेंट (एनसीएसएम) के एमडी सिराज चौधरी ने बताया कि वैश्विक बाजार में हमें एक मजबूत पोजीशन हासिल हो और हम अपनी पूरी क्षमता के साथ भारतीय बाजारों को उसमें समाहित कर सकें, इसके लिए यह जरूरी है कि निजी सेक्टर में टेक्नोलॉजी और इंफ्रा का अच्छा खासा निवेश हो। परंतु जरूरी यह है कि सरकार इस क्षेत्र में आनेवाली संभावित चिंताओं पर अपना स्पष्टीकरण दे।  

यह एक ऐसा नीतिगत फैसला है जिससे भारत की एक बहुत बड़ी जनसंख्या प्रभावित होनेवाली है। सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत कह चुके हैं कि देश के पास पर्याप्त मात्रा में कोल्ड स्टोरेज और संसाधन न होने की वजह से भारत ने अपने कुल खाद्य उत्पादन का महज 10 पर्सेंट ही प्रोसेसिंग किया। इससे एक साल में 900 अरब रुपए का नुकसान झेलना पड़ा। गौरतलब है कि मोदी सरकार इससे पहले भी कई ऐसे कानून ला चुकी है, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ है। उनमें से 2016 में नोटबंदी भी शामिल है। यह 1947 के बाद से सबसे बड़ा कानून लाया गया था। इसके बाद इसी सरकार ने बिना कोई मौका दिए अचानक लॉकडाउन लगाकर लोगों को घरों में बंद कर दिया था। हालांकि देखा जाए तो इसका नया कानून जो कृषि सुधार से संबंधित है उसमें कुछ गुंजाइश दिखाई दे रही है।  

याद रहे कि जब यह कानून संसद में पास हो रहा था तो 8 सांसदों को गलत बर्ताव के कारण पूरे सत्र तक के निलंबित कर दिया गया था। बाद में सभी विरोधी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और किसान संगठनों ने जगह-जगह धरना प्रदर्शन किया और पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश जैसों राज्यों में ट्रैक्टर रैलियां निकालकर अपना विरोध जताया। इसी विरोध के सिलसिले में सरकार की सबसे पुरानी सहयोगी शिरोमणि अकाली दल सरकार से खुद को बाहर कर लिया। अकाली दल ने कहा कि यह नया कानून आखिरकार किसानों को मार डालेगा और उन्हें बड़े-बड़े उद्योगपतियों के रहमोकरम पर छोड़ देगा जो कि मार्केट को नियंत्रण करेंगे। हालांकि इस पर सफाई देते हुए मोदी और उनके मंत्रियों ने कहा कि सारी चिंताएं बेबुनियाद हैं और सरकार की प्राइस गारंटी प्रोग्राम चालू ही रहेंगी।  

मोदी सरकार ने जाड़े की कुछ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी बढ़ा दिया ताकि किसानों में यह संदेश जाए कि वह किसी तरह के संकट में नहीं पड़नेवाले हैं। सरकार अब तक 2 दर्जन से ज्यादा फसलों की कीमतें तय करते आ रही है। उसमें मुख्य रूप से गेहूं चावल को किसानों से सीधे खरीदते आई है जबकि कहीं-कहीं किसानों की सुविधा के लिए यह दालें और तिलहन भी खरीद लेती है। इसके लिए देश भर में करीब 5 लाख दुकानों की चेन है।  

कोरोना के चलते यह मुद्दा और गरमा गया है। किसानों तक सप्लाई चेन नहीं पहुंच पाने के कारण सरकारी मशीनरी की पोल खुल गई है। इसे नौकरशाही की क्षमता पर बड़े प्रश्नचिन्ह के रूप में देखा जा रहा है। किसान कहते आ रहे हैं कि सरकार एक निश्चित मूल्य की गारंटी तो देती है लेकिन खरीदार उससे बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते हैं। हरियाणा के एक किसान चरणजीत सिंह ने बताया कि हमें तो बहुत मायूसी हाथ लगी है। मुख्य रूप से धान गेहूं और सब्जियों का उत्पादन करनेवाले सिंह ने आगे कहा कि सभी किसानों को, चाहे वे किसी भी बाजार में और किसी को भी अपना उत्पाद बेचें, उन्हें एमएसपी मिलना ही चाहिए।  

कांट्रैक्ट की खेती 

इंडस्ट्री के जानकारों का कहना है कि इस नए कानून से पूरे कृषि उद्योग का चेहरा ही बदल जाएगा, जो कि फिलहाल कम पैदावार और छोटे-छोटे खेतों में बंट हुए हैं। कांट्रैक्ट खेती एक ऐसा सिस्टम है जहां पर निजी कंपनियां किसानों को फसल बोने से पहले ही उन्हें निश्चित रकम अदा करने का एग्रीमेंट करती हैं। साथ ही उन्हें लोन, बीज तथा खेती के जरूरी अन्य सामान भी मुहैया कराई जाएगी। 

मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेस ने एक रिपोर्ट में कहा है कि इस नए कानून से किसान अब जहां चाहें जिस राज्य में चाहें अपना सामान बेच सकते हैं। किसानों के पास अब एक आय का स्थाई जरिया होगा। जब उनकी पैदावार बढ़ेगी तो इससे सरकार का निर्यात और रेवेन्यू भी बढ़ेगा। विशेषज्ञों ने कहा कि कुल मिलाकर कृषि से संबंधित इन सुधारों से किसानों का फायदा कराना चाहिए और उन्हें कांट्रैक्ट की खेती के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।  

विश्व बैंक के एक आंकड़ों के अनुसार जैसे-जैसे भारतीय कृषि सेक्टर में निजी सेक्टर की भागीदारी बढ़ेगी, वैसे ही इस सेक्टर का सप्लाई चेन और इंफ्रा सुधरेगा। भारत में अब तक कृषि जग दूसरे उद्योगों से काफी पिछड़ा हुआ है। भारत के गांवों में गरीबी की दर 25 पर्सेंट है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 14 पर्सेंट है। इस क्षेत्र में कम निवेश किए जाने से फूड सप्लाई का चेन हमेशा से कमजोर रहा है। यही बात मौजूदा महामारी के दौर में महसूस की गई, जब खाद्य महंगाई सितंबर में तेजी से बढ़कर 9.7 पर्सेंट हो गई। एक तरफ इस कानून के हिमायती कहते हैं कि भविष्य में इससे काफी सकारात्मक परिवर्तन आएगा, तो दूसरी ओर इसके विरोधियों का तर्क है कि इससे किसानों का सेफ्टीनेट काफी कमजोर हो गया है।  

एंड ऑफ द रोड  

दक्षिणी भारत के किसानों के यूनियन के महासचिव के. सुब्रमणियन ने बताया कि यह फूड सिक्योरिटी प्रोग्राम के लिए एंड ऑफ द रोड है। आलू और फल सब्जियों का उत्पादन करनेवाले सुब्रमणियन ने कहा कि लंबी अवधि में निजी कंपनियां कृषि सेक्टर के उत्पादन को अपनी मुठठी में कर लेंगी। सरकार वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) के दबाव में झुक जाएगी। यहां तक कि इन नए कानूनों से पहले ही कई सारे राज्यों में किसानों को दूसरे सरकार समर्थित होलसेल बाजार में उनके उत्पादों को बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसपोर्ट करने में भी कई चुनौतियां सामने आ रही थीं।  

यह एक किसान विरोधी नीति है। कृषि कानून पहले भी कृषि क्षेत्र की बढ़त को दबाकर रखा हुआ है। जब भी मांग के चलते कीमतें बढ़ती हैं तो कीमत नियंत्रण का नियम बीच में आ जाता है। इससे इस क्षेत्र में कोई भी निवेश करने से लोग हट जाते हैं। सरकार बीच-बीच में कीमतों को नियंत्रित करने के लिए कई पैदावार के निर्यात पर प्रतिबंध भी लगाते रहती है और उनके स्टोरेज पर भी सीमा लगा देती है। किसानों को जल्दी नष्ट हो जाने वाले पैदावार से अक्सर नुकसान ही होता है। इस नए कानून के कुछ विरोधियों का कहना है कि यह किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन साबित हो सकता है। उनका कहना है कि कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियां कृषि उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीद कर उन्हें बाजार में बड़े मुनाफे में बेचती हैं। इससे जमाखोरी और ब्लैक मार्केटिंग का भी खतरा बढ़ जाता है।  

ऑल इंडिया किसान संघर्ष कमेटी किसानों का एक समूह है जो सरकार पर दबाव बनाती है। इसने कहा कि कांट्रैक्टर पर लगाम लगाने का कोई सटीक सिस्टम नहीं है और उन पर पेनाल्टी लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। भारत देश पहले से ही विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है। गेहूं, चावल, कुछ फलों और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। इसके अलावा यह कॉटन, राइस और चीनी का सबसे बड़ा निर्यातक है। अगर भारत वैश्विक बाजार में अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ा सकता है तो यह वैश्विक फूड सप्लाई चेन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन सकता है। नीति आयोग के चेयरमैन अमिताभ कांत ने एक आर्टिकल लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि नए कानून से भारत फूड एक्सपोर्ट का पावर हाउस बनने को तैयार है।  

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