किसानों की तुलना में संगठित सेक्टर के कर्मचारियों की सैलरी कई गुना ज्यादा, फिर किसान अमीर कैसे

मुंबई– करीबन ढाई महीने से चल रहा किसानों का आंदोलन अब 2 अक्टूबर तक चलेगा। किसान नेता राकेश टिकैत ने सरकार को 2 अक्टूबर तक की मोहलत दी है। खेती-किसानी के 3 कानूनों के विरोध में यह आंदोलन है। हालांकि इसके पीछे यह बात भी आ रही है कि किसान काफी अमीर हैं फिर भी वे राजनीतिक रूप से प्रेरित होकर आंदोलन कर रहे हैं। जबकि हकीकत इसके उलट है।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के 2018 के सर्वे के मुताबिक, देश में रेगुलर वर्कर्स की मासिक औसत सेलरी 13,568 रुपए रही है। जबकि नॉन रेगुलर की 5,853 रुपए मासिक रही है। जबकि नेशनल सैंपल सर्वें (NSS) के सर्वे के मुताबिक, किसानों की इनकम इससे काफी कम है। खासकर पंजाब राज्य, जहां के किसान आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। 

सर्वे के मुताबिक, पंजाब के हर किसान की औसत मासिक आय 18 हजार 59 रुपए थी। हर परिवार में औसतन 5.24 किसान थे। उनकी प्रति व्यक्ति मासिक आय 3450 रुपए थी। यह किसी भी संगठित सेक्टर में काम कर रहे कर्मचारियों से काफी कम है।

हरियाणा को लेकर यही आकंड़े हैं। यहां (हर घर में 5.9 व्यक्ति) एक परिवार की 14,434 रुपए औसत मासिक आय है। यानी लगभग 2,450 रुपए प्रति व्यक्ति इनकम है। निश्चित रूप से यह संख्या अभी भी उन्हें अन्य भारतीय किसानों से आगे रखती है। उदाहरण के लिए, गुजरात को लेते हैं। यहां किसान के परिवार की औसत मासिक आय 7,926 रुपए थी। एक परिवार में औसतन 5.2 व्यक्तियों को लें तो यह आय प्रति व्यक्ति 1,524 रुपए आती है।

खेती करने वाले परिवार की मासिक आय राष्ट्रीय स्तर पर 6,426 रुपए है। (प्रति व्यक्ति लगभग 1,300 रुपए) इन सभी औसत मासिक आंकड़ों में सभी तरह से होने वाली आय शामिल है। यानी खेती के अलावा इसमें बल्कि पशुधन, गैर-कृषि व्यवसाय, मजदूरी और वेतन से होने वाली आय भी शामिल है।

यह भारतीय किसान की स्थिति है जिसे NSS ने बताया है। सरकार ने अगले 12 महीनों यानी 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का वचन दिया है। सरकार के लिए यह काफी कठिन काम है जो रिहाना और ग्रेटर थन भर के बयानों से भी ज्यादा पसीना बहाने वाला साबित होगा।

दिल्ली की सीमाओं पर रात को सोने वाले वे किसान जिन्हें अमीर बताया जा रहा है वह नुकीले किलों पर सो रहे हैं। जहां रात में 2 डिग्री सेल्सियस तक तापमान पहुंच जाता है। दिन में 5 से 6 डिग्री के तापमान पर स्नान कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो उन्होंने भारत में धनी होने की परिभाषा को ही बदल दिया है

दिल्ली के फाटकों पर विरोध कर रहे किसानों को तितर-बितर करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसमें अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को भी देखा जा रहा है। पिछले 2 महीनों में हजारों लोगों के पानी और बिजली के कनेक्शन काट दिए गए हैं। उनके सामने स्वास्थ्य का खतरा भी उत्पन्न हो गया है। चारों तरफ पैरामिलिट्री फोर्स लगा दी गई है और उनके रास्तों पर कील बिछा दी गई है। उन्हें बहुत ही नारकीय स्थिति में रहने को मजबूर किया जा रहा है। यहां तक कि ऐसी जगहों पर पत्रकारों का भी पहुंच पाना लगभग असंभव हो गया है जिससे वे विरोध कर रहे किसानों के पास नहीं जा पा रहे हैं।

बताया जा रहा है कि अब तक कम से कम 200 किसानों की पिछले दो महीनों में मौत भी हो चुकी है। किसान संगठन आइफा के संयोजक डॉ. राजाराम त्रिपाठी कहते हैं कि जिन लोगों ने “मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस” का नारा दिया था उन्हें तो अब तक इसका हल ढूंढ लेना चाहिए था। पर सबसे ज्यादा आश्चर्य करने वाली बात यह है कि इस मामले पर अभी भी वह लोग मौन साथ कर बैठे हैं जो ऐसे विषयों पर खोल कर अपनी बातें रखा करते थे। उन्हें तो इस तरह लोकतंत्र का हो रहा मजाक भी देखने की आदत पड़ गई है।

वे कहते हैं कि भारत सरकार के कैबिनेट का हर एक सदस्य जानता है कि वास्तव में इन किसान के विरोध को तोड़ने का सही तरीका क्या है। उन्हें अच्छी तरह पता था कि इन तीनों किसानों के बिल को लेकर कम से कम किसानों से कोई चर्चा नहीं हो रही है और इसलिए उन्हें बतौर अध्यादेश लाए जाने की बात चल रही थी। यहां तक की इन तीनों कानूनों को लाने से पहले राज्यों से भी किसी तरह की कोई चर्चा नहीं की गई थी। जबकि संविधान में कृषि राज्यों का विषय है।

डॉ. त्रिपाठी उस टीम के सदस्य रहे हैं जो पहली बार 2018 में किसानों की सम्मान निधि योजना में उस समय के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के घर पर मीटिंग में शामिल हुए थे। वे कहते हैं कि किसानों के कानून पर विरोधी पार्टियों या फिर संसद में भी इसको लेकर कोई चर्चा नहीं की गई थी।  

किसानों का आंदोलन अब थोड़ा और आगे बढ़ रहा है। अब तो इन किसानों की बात उन मंत्रियों और दरबारियों से ज्यादा अच्छी तरह लोगों के पास पहुंच रही है। उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर विरोध हो रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत अब कहीं ज्यादा समझदार और दमखम वाले नेता बनकर उभरे हैं और उन्हें दबाने की सरकार की सभी कोशिशें बेकार हो गई हैं।

25 जनवरी को भी महाराष्ट्र में किसानों का बहुत बड़ा विरोध मार्च निकाला गया था। इसी तरह राजस्थान, कर्नाटक में भी ट्रैक्टरों की रैलियां निकाली गई थी। यही हाल बेंगलुरु तथा आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में दोहराया गया था। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर ने अब पब्लिक मीटिंग को अटेंड करना ही लगभग बंद कर दिया है।

पंजाब में तो हर घर किसानों के साथ है। कई किसान मोर्चे में शामिल होने वाले हैं तो कई पहले ही शामिल हो चुके हैं। क्योंकि वहां 14 फरवरी को स्थानीय निकायों के चुनाव होने वाले हैं। इसलिए भाजपा को चुनाव के लिए उम्मीदवार मिलने मुश्किल हो गए। जो मिले भी वह काफी पुराने वफादार हैं पर उन्हें अपने पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ना मुश्किल दिख रहा है। सरकार की दमनकारी नीति से राज्य का एक बहुत बड़ा युवा वर्ग अपने आप को सरकारी सिस्टम से अलग महसूस कर रहा है जो कि उनके भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है।

यह इस सरकार की एक आश्चर्यजनक उपलब्धि है कि इसने सामाजिक ताकतों, स्पेक्ट्रम, कुछ किसानों और आढ़तियों (कमिशन एजेंटों) को एकजुट कर रखा है। इसके अलावा इसने सिखों, हिंदू, मुस्लिमों, जाटों और गैर जाटों, यहां तक कि खापों और खान बाजार में भीड़ को भी एकजुट किया है। यह काफी असरदार है।

2 महीने तक जब तक आंदोलन अपने चरम पर था तब तक ऐसा लग रहा था कि यह सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसानों की बात है। इससे बाकी किसान प्रभावित नहीं हैं। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। किसानों के बारे में अक्सर ऐसा कहा जाता है कि वे धनी किसान हैं जो सुधारों का विरोध कर रहे हैं।

किसानों के पक्ष में यह बात जा रही है कि सरकार उन्हें जितना ही ज्यादा दबाने की कोशिश कर रही है उनकी तादाद बढ़ती जा रही है। अब तो मीडिया भी उनकी तरफ ज्यादा आकर्षित हो रही है। उनके विरुद्ध जो बात जा रही है वह यह कि सरकार आने वाले दिनों में और ज्यादा दमनकारी उपाय लागू कर सकती है और किसानों के ऊपर बर्बरता पूर्वक कोई कार्रवाई भी की जा सकती है।

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