महंगाई ने छीना गरीब स्कूली बच्चों की थाली से खाना, पौष्टिक भोजन को तरस रहे बच्चे
मुंबई- ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 150 किलोमीटर दूर घुगुडीपाड़ा गांव में रहने वाले 8 साल के रंजीत नायक को अब स्कूल के मिड डे मील में भी तरीके से खाना नहीं मिलता। पेट पकड़ रंजीत जैसे कई गरीब बच्चे अब पौष्टिक भोजन को तरस रहे हैं। उनके गरीब परिवारों में यह कुवत नहीं कि वो उन्हें अच्छा भोजन दे सकें।
भारत में लगभग दो साल से खाद्य महंगाई बढ़ने से दोपहर के भोजन की थाली से यह निवाला भी उन्हें नसीब नहीं हो पा रहा है। सब्जियों, फलों और दालों की बढ़ती कीमतों की वजह से सरकारी वित्तपोषित स्कूली भोजन में कटौती हो रही है।
गरीब बच्चों को स्कूलों से मिलने वाला मिड डे मील उनके ही नहीं बल्कि उनके परिवारों के भी जीने का सहारा हुआ करता था, लेकिन गरीब बच्चों को स्कूल लाने और उन्हें बुनियादी पोषण देने के मकसद से चलाया गया तीन दशक पुराना यह कार्यक्रम देश के सबसे जरूरतमंद लोगों पर खाद्य पदार्थों के महंगाई का असर झेल रहा है। गरीब बच्चों के पोषण पर इससे गहरा असर पड़ा है।
देश के चार राज्यों के 21 स्कूल शिक्षकों, एक दर्जन परिवारों और शोधकर्ताओं के मुताबिक, स्कूलों को मुख्य सामग्री पर कंजूसी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है क्योंकि खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के बावजूद बीते दो साल से योजना के तहत भोजन का बजट नहीं बढ़ा है।
21 शिक्षकों में से 16 ने कहा कि महंगाई ने मौजूदा बजट को नुकसान पहुंचाया है जिससे छात्रों को पौष्टिक भोजन देना मुश्किल हो गया है। योजना की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों बताते हैं कि इस कार्यक्रम में कक्षा 8 तक के 10 लाख सरकारी और सरकारी मदद वाले स्कूलों के अनुमानित 12 करोड़ बच्चे शामिल हैं। इसके तहत शिक्षक और स्कूल प्रशासन दिए जाने वाले भोजन की गुणवत्ता का प्रबंधन करते हैं।
उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर जिले के एक शिक्षक ने कहा कि बीते छह महीनों से फल नहीं परोसे गए हैं और हरी सब्जियों की जगह कद्दू ने ले ली है। उन्होंने कहा कि छात्रों को दिया जाने वाला दूध सफेद पानी से थोड़ा अधिक है।
संगठनों और लोगों के एक अनौपचारिक गैर-सरकारी नेटवर्क राइट फॉर फूड अभियान से जुड़ी स्वतंत्र विकास अर्थशास्त्री और शोधकर्ता दीपा सिन्हा के मुताबिक, मध्याह्न भोजन योजना के लिए बजट नियमित तौर से महंगाई के मुताबिक नहीं रखा जाता है, जैसा कि होना चाहिए। नतीजन भोजन की गुणवत्ता से समझौता होता है। उन्होंने कहा सरकार इन भोजनों के लिए मुफ्त अनाज देती है, लेकिन यह अपर्याप्त बजट की वजह से सब्जियों, दालों, दूध और अंडों जैसी अन्य पौष्टिक सामग्री में कटौती की भरपाई नहीं करता है। ऐसे में स्कूल बजट के प्रबंधन के लिए सस्ती किस्म की दालों का विकल्प चुनता है और गाजर जैसी अधिक पौष्टिक सब्जियों को छोड़ देता है।
आरबीआई के मुताबिक, सब्जियों की कीमतों में बीते चार साल में 22 महीनों में 10 फीसदी से अधिक की महंगाई देखी गई है। इसी तरह, दालें और तेलों की कीमतें 24 महीनों तक 10 फीसदी से ज्यादा बढ़ी हैं, और अंडों की कीमतें 15 महीनों तक इस अवधि के दौरान बढ़ी हैं।
जून 2020 और जून 2024 के बीच भारत की खाद्य महंगाई औसतन 6.3 फीसदी रही है। वहीं, बीते चार साल में यह 2.9 फीसदी थी। खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल के बावजूद, योजना के तहत प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय के छात्र के लिए 5.45 रुपये और उच्च प्राथमिक छात्रों के लिए 8.17 रुपये का न्यूनतम बजट अक्तूबर 2022 से नहीं बढ़ाया गया है।
योजना का संचालन करने वाले शिक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि वर्तमान 2024-25 वर्ष के लिए आवंटन बढ़ाने का फैसला चुनावों की वजह से टल गया है। सरकारी योजना के मुताबिक, प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय के भोजन में 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन शामिल होना चाहिए। यह उच्च प्राथमिक कक्षा के लिए 700 कैलोरी और 20 ग्राम प्रोटीन तक होता है। शिक्षकों और शोधकर्ताओं ने कहा कि हालांकि, ऑडिट होते हैं, लेकिन पोषण के स्तर को रोज दर्ज नहीं किया जाता है।
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की 2024 की रिपोर्ट खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति के मुताबिक, 2022 तक 55 फीसदी भारतीय आबादी स्वस्थ आहार का खर्च उठाने में असमर्थ थी। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के राजेंद्रन नारायणन के मुताबिक, 2019 की केंद्रीय सरकार समिति की सिफारिश में हर व्यक्ति के लिए संतुलित आहार मुहैया कराने के लिए जरूरी धनराशि के तौर पर रोजाना 375 रुपये की राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी की सिफारिश की गई थी।
नारायणन ने श्रम बल सर्वेक्षण के निष्कर्षों के आधार पर कहा कि 2022-23 में, 30 करोड़ श्रमिक इस सीमा से कम कमा रहे थे। नारायणन के अनुसार, महंगाई के वक्त पोषण योजनाओं को मजबूत करना जरूरी है, लेकिन,ऐसा करने के लिए सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।