भाजपा की उत्तर प्रदेश में लुट सकती है लुटिया, मोदी-योगी की रैलियों में पहले जैसा उत्साह नहीं  

मुंबई- इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुछ नेताओं की रैलियों में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखा। प्रधानमंत्री मोदी की जनसभा के अगले दिन हमने योगी आदित्यनाथ की रैली देखी। वहां का माहौल अखिलेश की रैली के ठीक उलट था। योगी ने अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं, लेकिन लोगों पर उसका कोई असर नहीं दिखा। कई लोग तो योगी के भाषण के दौरान ही मैदान से बाहर जाने लगे थे।  

कुछ लोग योगी को नरेंद्र मोदी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बताते हैं। मोदी ने यूक्रेन में फंसे भारतीयों को निकाल लाने के बारे में बात की। उन्होंने दुनिया में भारत का मान-सम्मान बनाए रखने का हवाला दिया। भारतीय सैनिकों पर अंगुली उठाने वालों को टारगेट किया और आत्मनिर्भर भारत की नीतियां गिनाईं। यह दावा भी किया कि कोविड के टीके लगाने और 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन देने में सरकार ने शानदार काम किया। बताया कि इतनी तो कई देशों की आबादी भी नहीं है।  

मोदी ने कहा कि गरीबों के लिए मकान, पाइप के जरिए पीने का पानी और हर घर में बिजली का इंतजाम करने वाली इकलौती पार्टी बीजेपी है। किसानों के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस और पीएम किसान योजना का हवाला भी उन्होंने दिया। लेकिन पब्लिक का रिएक्शन बता रहा था कि यह सारा किस्सा बासी हो चुका है और चुनाव प्रचार में कई बार दोहराया जा चुका है। इन बातों से जोश की कोई लहर नहीं उठी।

मोदी के भाषण की एक खास बात यह रही कि उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के बारे में कुछ भी नहीं कहा। सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने वाली कोई बात नहीं कही। कई लोग दावा कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के चुनाव प्रचार में नफरत और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश हुई, लेकिन असल में ऐसा कुछ नहीं दिखा।

मोदी ने दावा किया कि बीजेपी विकास करेगी। जवाब में लोगों ने ताली बजाई। लेकिन यूपी में जीडीपी ग्रोथ का हाल ऐसा है कि योगी आदित्यनाथ के शासन काल में इसकी रफ्तार बेहद कम रही। कोविड महामारी ने राज्य को अच्छा-खासा झटका दिया क्योंकि इसकी इकॉनमी को बड़ा सहारा प्रदेश के उन लोगों के भेजे पैसे से भी मिलता है, जो दूसरे राज्यों में काम करते हैं। लॉकडाउन ने इन लोगों के कामकाज और आमदनी पर गहरा असर डाला। महंगाई पहले से परेशान कर रही थी, अब यूक्रेन युद्ध और क्रूड ऑयल में उबाल ने इसे और हवा दे दी है। 


पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में भाजपा का प्रदर्शन अगर बहुत खराब भी रहे तो हो सकता है कि दूसरे हिस्सों में परफॉर्मेंस काफी अच्छा हो। लेकिन आंकड़ेबाज का जो भी सोचना हो, कभी-कभी ऐसे गुणा-गणित को किनारे कर मन की बात मानना ठीक लगता है। 

मोदी की जनसभा के अगले दिन हमने योगी आदित्यनाथ की रैली देखी। वहां का माहौल अखिलेश की रैली के ठीक उलट था। एक कॉलेज के मैदान में जनसभा थी। लोग कम थे और मैदान का अधिकांश हिस्सा खाली था। योगी ने अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं, लेकिन लोगों पर उसका कोई असर नहीं दिखा। कई लोग तो योगी के भाषण के दौरान ही मैदान से बाहर जाने लगे थे। कुछ लोग योगी को नरेंद्र मोदी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बताते हैं, लेकिन कम से कम उस रैली में तो इसका कोई संकेत दूर-दूर तक नहीं दिखा।

जरूरी नहीं है कि चुनाव में जो दिखे, असल नतीजा भी वही हो। चुनाव बाद की जोड़तोड़ कहीं ज्यादा असर डाल सकती है। 2017 में भाजपा कर्नाटक चुनाव हार गई थी। 2018 में मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ। लेकिन बाद में दोनों जगहों पर उसने सत्ताधारी दल के इतने विधायक खरीद लिए कि अपनी सरकार बनाई जा सके।

एक पुरानी कहावत है कि चुनाव पैसे से नहीं जीता जा सकता। चाहे जितने पैसे बहा दें, बदलाव का मन बना चुके वोटरों को खरीदा नहीं जा सकता। लेकिन पैसे से विधायक तो खरीदे ही जा सकते हैं। अगर समाजवादी पार्टी और उसके सहयोगी दल मामूली बहुमत से जीत हासिल करते हैं, तो वे खतरे में रहेंगे। 


पूरे उत्तर प्रदेश में भीड़ का जैसा उत्साह दिखा है, उसके मुताबिक तो जीत समाजवादी पार्टी की होनी चाहिए। जहां-जहां अखिलेश गए, लोगों ने उनका जमकर स्वागत किया। मैंने तो चुनावी रैलियों में इस तरह का जोशीला माहौल कम ही देखा है। अखिलेश की रैली के अगले ही दिन सोनभ्रद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभा थी। लेकिन वहां माहौल ऐसा नहीं था। पहली कतार में बीजेपी के कार्यकर्ता जमे थे। वे पूरे दमखम से नारे लगा रहे थे, जिनकी उन्हें अच्छी प्रैक्टिस थी। लेकिन बाकी लोगों में वह जोश नहीं दिखा। 

मोदी ने यूक्रेन में फंसे भारतीयों को निकाल लाने के बारे में बात की। उन्होंने दुनिया में भारत का मान-सम्मान बनाए रखने का हवाला दिया। भारतीय सैनिकों पर अंगुली उठाने वालों को टारगेट किया और आत्मनिर्भर भारत की नीतियां गिनाईं। यह दावा भी किया कि कोविड के टीके लगाने और 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन देने में सरकार ने शानदार काम किया। बताया कि इतनी तो कई देशों की आबादी भी नहीं है। मोदी ने कहा कि गरीबों के लिए मकान, पाइप के जरिए पीने का पानी और हर घर में बिजली का इंतजाम करने वाली इकलौती पार्टी भाजपा है। किसानों के लिए न्यूनचम समर्थन मूल्य और पीएम किसान योजना का हवाला भी उन्होंने दिया। लेकिन पब्लिक का रिएक्शन बता रहा था कि यह सारा किस्सा बासी हो चुका है और चुनाव प्रचार में कई बार दोहराया जा चुका है। इन बातों से जोश की कोई लहर नहीं उठी।

मोदी के भाषण की एक खास बात यह रही कि उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के बारे में कुछ भी नहीं कहा। सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने वाली कोई बात नहीं कही। कई लोग दावा कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के चुनाव प्रचार में नफरत और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश हुई, लेकिन असल में ऐसा कुछ नहीं दिखा। मोदी ने दावा किया कि बीजेपी विकास करेगी। जवाब में लोगों ने ताली बजाई। लेकिन यूपी में जीडीपी ग्रोथ का हाल ऐसा है कि योगी आदित्यनाथ के शासन काल में इसकी रफ्तार बेहद कम रही। कोविड महामारी ने राज्य को अच्छा-खासा झटका दिया क्योंकि इसकी इकॉनमी को बड़ा सहारा प्रदेश के उन लोगों के भेजे पैसे से भी मिलता है, जो दूसरे राज्यों में काम करते हैं। 

लॉकडाउन ने इन लोगों के कामकाज और आमदनी पर गहरा असर डाला। महंगाई पहले से परेशान कर रही थी, अब यूक्रेन युद्ध और क्रूड ऑयल में उबाल ने इसे और हवा दे दी है। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों की एक खास बात हुआ करती थी। वह पब्लिक से जबरदस्त कनेक्शन जोड़ लेते। वह सवाल उछालते, भीड़ दोगुने उत्साह से जवाब देती। लेकिन इस बार यूपी की रैलियों में यह चीज नहीं दिखी।  

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की रैलियों के दौरान भी जनता के बीच कोई खास जोशीला करंट नहीं दौड़ा।इसके उलट सपा प्रमुख अखिलेश यादव की रैलियों में लोगों का रेला उमड़ा। उनके साथ फोटो खिंचवाने की होड़ लगी रही। जनता बैरियर-वैरियर तोड़कर उनके मंच तक पहुंचने को आतुर दिखी। क्या रैलियों के इस समीकरण की छाप 10 मार्च को आने वाले नतीजों में भी दिखेगी? इसे जानने के लिए 10 मार्च यानी बुधवार तक इंतजार करना होगा। 

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