महिला हॉकी टीम के खिलाड़ियों की कहानी, तांगा चलाकर और मोटर साइकल बेच कर हॉकी खरीदा
मुंबई- भारतीय महिला हॉकी टीम ने इतिहास रचते हुए टोक्यो ओलिंपिक के सेमीफाइनल में जगह बना ली है। 41 साल में टीम ने पहली बार यह कारनामा किया है। इस अंसभव सी लगती सफलता को मुमकिन बनाया है देश की 16 बेटियों ने।
भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल हरियाणा के कुरुक्षेत्र के शाहाबाद कस्बे की रहने वाली हैं। उनके रामपाल पिता तांगा चलाया करते थे। मां लोगों के घरों में काम करती थी। पिता की कमाई 80 रुपए रोज की थी। रानी से बड़े दो भाई हैं। एक भाई किराना के दुकान में काम करता है। वहीं, दूसरा भाई बढ़ई का काम करता है।
रानी जब एकेडमी में दाखिले के लिए गईं तो कोच बलदेव सिंह ने साफ मना कर दिया, क्योंकि रानी काफी दुबली पतली थीं। उन्हें लगता था कि रानी की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है, ऐसे में उनके लिए डाइट का इंतजाम करना मुश्किल होगा। लेकिन, रानी की बार-बार जिद की वजह से उन्हें ट्रेनिंग पर आने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने कहा कि एकेडमी में पीने के लिए आधा लीटर दूध लाने के लिए कहा। उनका परिवार 200 मिली दूध का ही इंतजाम कर पाता था। रानी उसमें पानी मिलाकर ले जाती थीं ताकि ट्रेनिंग छूट न जाए। शुरुआत में वे सलवार में ही ट्रेनिंग करती थीं। बाद में उनकी प्रतिभा को देखते हुए कोच बलदेव सिंह ने उन्हें किट दिलवाई।
भारत ने ऑस्ट्रेलिया को क्वार्टर फाइनल में 1-0 से हराया। भारत के लिए इकलौता गोल गुरजीत कौर ने किया था। गुरजीत टीम में डिफेंडर और ड्रैग फ्लिक स्पेशलिस्ट की भूमिका निभाती हैं। ड्रैग फ्लिक स्पेशलिस्ट यानी पेनल्टी कॉर्नर लेने वाली खिलाड़ी अमृतसर की मियादी कला गांव की रहने वाली 25 साल की गुरजीत किसान परिवार से है। जिनका हॉकी से कोई संबंध नहीं था।
उनके पिता सतनाम सिंह बेटी की पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर थे। गुरजीत और उनकी बहन प्रदीप ने शुरुआती शिक्षा गांव के निजी स्कूल से ली और फिर बाद में उनका दाखिला तरनतारन के कैरों गांव में स्थित बोर्डिंग स्कूल में करा दिया गया। गुरजीत का हॉकी का सपना वहीं से शुरू हुआ। हालांकि, गुरजीत को हॉकी खिलाड़ी बनाना उनके परिवार के लिए आसान नहीं था। उनके लिए हॉकी किट खरीदने की खातिर उनके पिता ने मोटरसाइकिल तक बेच दी थी।
भारतीय टीम की युवा डिफेंडर सलीमा टेटे झारखंड में हॉकी का गढ़ माने जाने वाले सिमडेगा जिले से हैं। सलीमा का परिवार आज भी कच्चे घर में रहता है। परिवार में पांच बहनें और एक भाई है। घर की हालत ऐसी नहीं थी कि बेटी को स्पोर्ट्स में भेज सकें। सलीमा के सपने को सच करने के लिए बहन अनीमा ने बैंगलोर में मेड का काम किया। सलीमा जब हॉकी की वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने गई तो उसके पास ट्रॉली बैग तक नहीं था। कुछ परिचितों ने किसी से पुराना बैग लेकर दिया। पॉकेट मनी के लिए फेसबुक पर मुहिम चलाई गई। अब सलीमा को सरकारी नौकरी मिल चुकी है।