अर्थव्यवस्था में 11 लाख करोड़ डॉलर की राशि डालने के बाद भी जर्मनी में पांच लाख कंपनियां दिवालिया हुई

मुंबई– कोविड-19 की घटना ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। 11 लाख करोड़ डॉलर की राशि सिस्टम में डालने के बावजूद कंपनियां दिवालिया हो रही हैं। जर्मनी में 5 लाख कंपनियां दिवालिया हो चुकी हैं। जबकि अमेरिका में 45 कंपनियों ने दिवालिया के लिए आवेदन फाइल किया है। इन घटनाओं से ऐसा माना जा रहा है कि यह 2008 की भी मंदी से ज्यादा बड़ी मंदी हो सकती है। 

साल 2020 में अब तक 11 लाख करोड़ डॉलर की लिक्विडिटी डाल देने के बावजूद, सभी प्रकार के सॉवरेन और कॉरपोरेट बॉन्ड और शेयर अब मंदी की ओर जाने लगे हैं और उनकी कीमतों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। बड़े अमेरिकी कॉर्पोरेट धड़ाधड़ दिवालिया हो रहे हैं। यह 2008 में आये वित्तीय संकट के स्तर को पार करने वाली हैं। 17 अगस्त तक, रिकॉर्ड 45 कंपनियों ने दिवालियापन के लिए फाइलिंग की है। इनमें से हर कंपनी एक अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति वाली है। जर्मनी में 5 लाख कंपनियों दिवालिया हो चुकी हैं।  

स्पेन में बैंक ऑफ स्पेन ने अलर्ट किया कि सभी कंपनियों में से एक चौथाई कंपनियां दिवालिया होकर बंद होने के कगार पर हैं। मूडीज के अनुमानों के मुताबिक, प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में 10% से ज्यादा कारोबार गंभीर रूप से वित्तीय तनाव में हैं और कई तकनीकी रूप से दिवालिया हो चुकी हैं। 

विश्लेषकों का मानना है कि खरबों रुपए की लिक्विडिटी से निवेशकों और सरकार के बीच में सुरक्षा का एक गलत संदेश जा रहा है। लगातार दिवालिया और बंद हो रही कंपनियों से बेरोजगारी, निवेश और विकास, सब कुछ भविष्य में दाव पर लगा हुआ है। अब तक यह बात साफ हो चुकी है कि लिक्विडिटी रिस्क को थोड़ा देर के लिए टाल सकती है परंतु इससे घटते हुए कैश फ्लो या दिवालिया होने की संभावनाओं को नहीं टाला जा सकता। 

वैसे ताइवान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रिया, स्वीडन या हॉलैंड जैसे देशों ने इस तरह के संकट पर बखूबी विराम लगाया है। क्योंकि कोरोना महामारी से निपटने में इन देशों ने न सिर्फ अच्छे इंतजाम किए बल्कि महामारी के दौरान लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को कम से कम किया। इसका सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि ज्यादा से ज्यादा कंपनियां दिवालिया होती जा रही हैं। 

दरअसल 2008 संकट के बाद से सभी सॉवरेन बांड यील्ड्स को कम रखने की कोशिश की गई है। ऐसा सरकारी खर्चों और घाटों को कम करके तथा ज्यादा से ज्यादा लिक्विडिटी मार्केट में डाल कर के किया गया है। हालांकि, इस तरह के पैसे से बिना समझा परखा निवेश, पैसों का गलत आवंटन और सामान्य से अधिक स्तर पर कर्ज का लेनदेन भी शुरू हो गया है। छोटे व्यवसायों को इन भारी भरकम लिक्विडिटी का लाभ नहीं मिला, जबकि बड़ी कंपनियों ने इसका भरपूर फायदा उठाया है। 

गौरतलब है कि कई सरकारों ने गैर जिम्मेदाराना फैसले लेकर अर्थव्यवस्था को उसके हाल पर छोड़ दिया और इससे हाहाकार मचने लगा। तब सरकारों को भारी भरकम बेलआउट पैकेज की घोषणा करनी ताकि कंपनियां दिवालिया होने के संकट से अपने आप को बचा सकें। यदि कोई ऐसी अर्थव्यवस्था है जो पहले से ही कमजोर है और उसकी प्रोडक्टिविटी काफी गिर चुकी है। सॉल्वेंसी रेशियो भी गिरा हुआ है, तो ऐसी अर्थव्यवस्था को अगर दो-तीन महीने के लिए लॉक डाउन लगा दिया जाए तो इसका बुरा असर काफी सालों तक जरूर दिखाई पड़ेगा। 

ज्यादा डिमांड की नीति, गैर जरूरी प्रोत्साहन और योजनाएं, ज्यादा लिक्विडिटी संकट को और बदतर बना देंगी और समूची अर्थव्यवस्था को ऐसे मोड़ पर लाकर पटक देंगी जहां से और कोई रास्ता नहीं होगा। सिवाय इसके कि दिवालिया बन जाने के। क्योंकि चीजें इस तरह की वित्तीय संकट में पहुंच जाएंगी, जहां कंपनियों की बैलेंस शीट बिल्कुल खराब हो जाएगी और साथ ही उनका वैल्यूएशन बहुत कम हो जाएगा। 

सरकारें ज्यादा से ज्यादा जापानी रास्ता अख्तियार करेंगी जहां ज्यादा डेट होगा। ज्यादा से ज्यादा बेलआउट पैकेज होंगे और बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च होंगे। हालांकि, इससे केवल ठहराव और स्थायी असंतुलन पैदा होगा। इसे तब छिपाया नहीं जा सकता जब जापान की गलतियों को यूरोजोन, चीन और अमेरिका द्वारा लागू किया जाएगा। कोई संभव तरीका नहीं है जहां पर बड़े-बड़े खर्च और लिक्विडिटी चीजों को कंट्रोल कर लेंगे। बल्कि इससे कर्ज में बढ़ोतरी होगी वृद्धि रुकेगी और लोगों की मजदूरी भी कम हो जाएगी।

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