बैंक में जमा पैसा पर होता है महंगाई का असर, जानिए कैसे
मुंबई- मोटे तौर पर समझिए कि थोक महंगाई दर आने वाले समय में खुदरा महंगाई दर का मैप दिखाती है। अगर थोक महंगाई दर लगातार बढ़ रही है तो खुदरा महंगाई भी बढ़ेगी ही, बशर्ते कि अचानक बीच में कोई उतार-चढ़ाव न हो जाए। दोनों महंगाई दर अलग-अलग होकर भी एक दूसरे से जुड़ी हैं। साथ ही यह भी कि इनका असर केवल आपकी रसोई और जेब पर नहीं होता। महंगाई दर की जद में आपका बैंक बैलेंस, निवेश और वित्तीय योजनाएं भी होती है।
थोक महंगाई दर सिर्फ थोक कीमतों से ताल्लुक रखती है। इकोनॉमी की भाषा में इसे ‘फैक्ट्री गेट प्राइस’ कहते हैं। यानी उस सामान की कीमत में सिर्फ उसे बनाने में आने वाली लागत शामिल होती है। उस पर लगने वाला टैक्स, ट्रांसपोर्टेशन, वितरक या खुदरा व्यापारी का मार्जिन और अन्य खर्चे शामिल नहीं होते। जैसे-जैसे ये खर्चे जुड़ते जाते हैं, उस सामान की कीमत भी बढ़ती जाती है।
थोक महंगाई दर सिर्फ सामान (Goods) की कीमत पर नजर रखती है, जबकि खुदरा महंगाई दर में सामान के साथ-साथ सेवाओं (Services) की कीमत भी शामिल होती है। मतलब यह कि खुदरा महंगाई दर आपके मोबाइल, स्कूल फीस से लेकर यात्रा, मनोरंजन, घर का किराया और मेडिकल खर्चों को भी ट्रैक करती है।
होलसेल महंगाई दर यानी WPI के बास्केट में 65 प्रतिशत मैन्युफैक्चरिंग गुड्स होते हैं। इनमें कार, टीवी, मोबाइल, कपड़े से लेकर भारी मशीनरी सामान शामिल होते हैं। लेकिन अनाज, फल-सब्जियों जैसे खाद्य सामान और गैस जैसी चीजों को यह अपने बास्केट में सिर्फ 20% तरजीह देता है। ईंधन और बिजली को 13% जगह मिली है।
होलसेल इंडेक्स के बास्केट में पेट्रोलियम सहित कई ऐसी चीजें हैं, जिन पर अंतरराष्ट्रीय बाजार और कीमतों का सीधा असर होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम लगातार बढ़ते या घटते रहते हैं, लेकिन देश में केंद्र या राज्य सरकारों की ओर से एक्साइज और वैट बढ़ाने, घटाने या कोई बदलाव नहीं करने से होलसेल और खुदरा महंगाई दर में काफी अंतर आ जाता है।
मान लीजिए आपने बैंक में एक साल के लिए 1 लाख रुपए फिक्स्ड डिपॉजिट किए, जिस पर 4% ब्याज मिलना है। अब आप मानकर चल रहे हैं एक साल बाद 4 हजार रुपए रिटर्न जोड़कर आपको 1 लाख 4 हजार रुपए मिलेंगे। उस साल अगर महंगाई दर 4%रही तो सीन बदल जाएगा। आपकी नजर में आपको 1 लाख 4 हजार मिले। लेकिन चूंकि चीजों के दाम भी उसी दर से बढ़े हैं, इसलिए बाजार में आपके 1 लाख 4 हजार की कीमत असल में 1 लाख ही है। यानी एक साल पहले 1 लाख रुपए में जो सामान आप खरीद सकते थे, अब वह 1 लाख 4 हजार में मिलेगा।
महंगाई काबू करने के लिए सरकारें अक्सर ब्याज दरें बढ़ा देती हैं। इससे बाजार में लिक्विडिटी घट जाती है, यानी खर्च करने वालों के हाथ में रकम कम आती है। इससे भी महंगाई घटाने में मदद मिलती है। लेकिन यहां मामला इतना एकतरफा नहीं होता। महंगाई बढ़ने के अपने कारण होते हैं और कई बार महंगाई ही RBI की दरें तय करती है। आज जब पिछले 9 महीने से लगातार महंगाई बढ़ रही है, RBI पर दबाव बढ़ गया है कि वह नीतिगत दरों (Repo rate) में बढ़ोत्तरी करे।
हालांकि ब्याज दर बढ़ाने से महंगाई तो काबू हो जाएगी, पर इसका उल्टा असर भी हो सकता है। इकोनॉमी में पूंजी की कमी होगी तो उत्पादन और सप्लाई पर भी असर होगा। सप्लाई घटेगी तो फिर कीमतें बढ़ने लगेंगी।