अमेरिका के बाद जापान, जर्मनी और चीन तक पहुंच सकता है डूबने का खतरा
मुंबई- डिफॉल्ट होने के कगार पर पहुंच चुके अमेरिका की हालत दिन-ब-दिन खस्ता होती जा रही है। दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी की रोजाना की कमाई 13 अरब डॉलर रह गई है जबकि खर्च 17 अरब डॉलर से ज्यादा पहुंच गया है। हालत यह हो गई है कि सरकार के खाते में केवल 49 अरब डॉलर रह गए हैं। इस हफ्ते यूएस ट्रेजरी के कैश बैलेंस में 20 अरब डॉलर की कमी आई है।
ट्रेजरी मिनिस्टर जेनेट येलेन ने चेतावनी दी है कि अगर डेट सीलिंग की लिमिट नहीं बढ़ाई गई तो एक जून को देश डिफॉल्टर बन जाएगा। डेट लिमिट बढ़ाने के लिए रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक नेताओं के बीच बातचीत चल रही है लेकिन अब तक इस पर कोई डील नहीं हो पाई है। इस बीच रेटिंग एजेंसी फिच (Fitch) ने चेतावनी दी है कि अमेरिकी की टॉप रैंकिंग पर असर पड़ सकता है।
जानकारों का कहना है कि अगर अमेरिका डिफॉल्ट करता है तो इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा और ग्लोबल इकॉनमी मंदी की चपेट में आ सकती है। इससे अमेरिकी सरकार और लोगों के लिए उधारी की लागत बढ़ जाएगी। इसका देश की इकॉनमी पर भी व्यापक असर देखने को मिलेगा। डेट लिमिट वह सीमा होती है जहां तक फेडरल गवर्नमेंट उधार ले सकती है। 1960 से इस लिमिट को 78 बार बढ़ाया जा चुका है। पिछली बार इसे दिसंबर 2021 में बढ़ाकर 31.4 लाख करोड़ डॉलर किया गया था। लेकिन यह इस सीमा के पार चला गया है।
अमेरिकी राष्ट्रपति के व्हाइट हाउस काउंसिल ऑफ इकोनॉमक एडवाइजर्स के एक ब्लॉग पोस्ट के मुताबिक अगर डेट सीलिंग नहीं बढ़ाई गई तो देश में कयामत आ जाएगी। व्हाइट हाउस के अर्थशास्त्री ने कहा कि प्रोट्रैक्टेड डिफॉल्ट से इकॉनमी को भारी नुकसान होगा। जॉब ग्रोथ में अभी जो तेजी दिख रही है, वह पटरी से उतर जाएगी। लाखों रोजगार खत्म हो जाएंगे और देश 2008 की तरह वित्तीय संकट में फंस सकता है।
साल 2011 में अमेरिका डिफॉल्ट के कगार पर था और अमेरिका सरकार की परफेक्ट AAA क्रेडिट रेटिंग को पहली बार डाउनग्रेड किया गया था। इससे अमेरिका शेयर मार्केट में भारी गिरावट आई थी जो 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे खराब हफ्ता था। गुजरते दिन के साथ अमेरिका के डिफॉल्ट होने का खतरा बढ़ता जा रहा है।
अमेरिका की वित्त मंत्री जेनेट येलेन ने चेतावनी दी है कि अगर डेट सीलिंग की लिमिट नहीं बढ़ाई तो उनका देश एक जून को डिफॉल्ट कर जाएगा। अगर ऐसा होता है तो अमेरिका के इतिहास में यह पहली बार होगा। अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी है और उसके डिफॉल्टर बनने से चीन तथा जापान को खुशी होनी चाहिए थी। लेकिन मामला एकदम उल्टा है।
दूसरे नंबर की इकॉनमी चीन और तीसरे नंबर पर मौजूद जापान ऐसा न होने की दुआ कर रहे हैं। उनकी सांसें अटकी हुई हैं। इसकी वजह यह है कि अमेरिकी के सरकारी कर्ज में चीन और जापान सबसे बड़े विदेशी निवेशक हैं। विदेशी सरकारों के पास अमेरिका के 7.6 ट्रिलियन डॉलर के सरकारी बॉन्ड हैं। इनमें से एक चौथाई से अधिक यानी दो ट्रिलियन डॉलर चीन और अमेरिका के पास है।
सीएनएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने साल 2000 में अमेरिका के सरकारी बॉन्ड्स को खरीदना की प्रक्रिया तेज की थी। यह वह दौर था जब अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ (WTO) में चीन के एंट्री को मान्यता दी थी। इससे चीन से एक्सपोर्ट में तेजी आई और देश में भारी मात्रा में डॉलर आने लगा। इसे सही जगह निवेश करने की जरूरत महसूस हुई। अमेरिका का ट्रेजरी बॉन्ड्स को दुनिया में सबसे सुरक्षित माना जाता है और इसमें चीन की हिस्सेदारी 2013 में 1.3 ट्रिलियन डॉलर पहुंच गई थी। करीब एक दशक तक चीन अमेरिका के लिए सबसे बड़ा विदेशी क्रेडिटर बना रहा। लेकिन 2019 में ट्रंप सरकार और चीन के बीच तनाव गहराने के बाद चीन ने अमेरिका सरकारी बॉन्ड्स में अपना निवेश कम कर दिया और उसकी जगह जापान ने ले ली।
आज स्थिति यह है कि अमेरिका के सरकारी बॉन्ड्स में जापान का इनवेस्टमेंट 1.1 ट्रिलियन डॉलर है जबकि चीन की हिस्सेदारी 870 अरब डॉलर है। यानी अगर अमेरिका डिफॉल्ट करता है तो इन दोनों को तगड़ा झटका लग सकता है। अमेरिका के डिफॉल्ट करने से उसके सरकारी बॉन्ड की वैल्यू में गिरावट आ सकती है। इससे जापान और चीन के फॉरेन रिजर्व्स में भी गिरावट आएगी। यानी उनके पास जरूरी आयात और विदेशी कर्ज को चुकाने के लिए कम पैसे होंगे। अमेरिका के डिफॉल्ट से वहां की इकॉनमी मंदी में फंस सकती है। ऐसा हुआ तो इसका असर पूरी दुनिया पर देखने को मिल सकता है। चीन की इकॉनमी अभी कोरोना वायरस के असर से नहीं निकल पाई है जबकि जापान में रिकवरी अब शुरू हुई है।