RCEP से हटकर भारत आत्मनिर्भर बनेगा और चीन को पटखनी देगा

मुंबई– क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) से अलग रहने की भारत की रणनीति से इसके आत्मनिर्भर बनने की दिशा में एक और कदम आगे बढ़ा है। साथ ही चीन को पटखनी देने में भी भारत ने बहुत सोच-समझकर इससे हटने का फैसला किया था। इससे भारतीय कारोबारियों को फायदा होगा। 

दरअसल पिछले साल नवंबर में जब भारत ने RCEP से हटने का फैसला किया था, तब चीन के खिलाफ वैसा माहौल नहीं था, जो आज है। हालांकि उस समय भारत ने आंतरिक कारोबारियों, रातनीतिक दलों और अन्य के दबाव में इससे हटने का निर्णय लिया था। पर उसके बाद इसी साल जून में डोकलाम में जब 20 भारतीय सैनिक चीन के साथ लड़ाई में शहीद हो गए तो मामला पूरी तरह से बिगड़ गया। भारत ने चीन के तमाम ऐप पर बैन लगा दिया और वहां की कंपनियों को यहां सरकारी ठेका भी रद्द कर दिया। इसके अलावा कई सारे प्रतिबंध भी भारत ने लगाए।  

भारत ने आत्मनिर्भर भारत की जो शुरुआत की, वह कुछ इसी तर्ज पर है। RCEP से भारत के हटने का फायदा बहुत सारा है। इसमें चीन को सबसे ज्यादा घाटा होगा। अगर भारत इसमें शामिल हो जाता तो चीन भारत के बाजार में बिना किसी रोक टोक के कारोबार करता। वह सस्ती कीमतों पर सामान बेचता। साथ ही इससे भारत का व्यापार घाटा भी बढ़ सकता है। भारत के छोटे कारोबारी खत्म हो जाते थे। लेकिन भारत ने एक बहुत बड़ा फैसला जो एक साल पहले किया था, वह अब सही दिख रहा है।  

RCEP में 10 आसियान देशों सहित चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने 15 नवंबर को हस्ताक्षर कर दिए। जो कि कोविड-19 महामारी की स्थिति में इन सदस्य देशों का आर्थिक रिकवरी का विश्वास बढ़ाने, क्षेत्रीय उद्योग और सप्लाई चेन मजबूत करने के लिए लाभदायक होगा। हालांकि इससे भारत के हटने का असर यह होगा कि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) बढ़ाने का अच्छा अवसर उसके हाथ से निकल सकता है। 

वास्तव में आरसीईपी 10 आसियान देशों की पहल पर स्थापित मुक्त व्यापार समझौता है। इसमें चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और भारत को भी आमंत्रित किया गया है। आरसीईपी का उद्देश्य टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधा कम करने के जरिए 16 देशों के लिए एकीकृत बाजार स्थापित करना है। लेकिन भारत ने सीमा शुल्क, व्यापारिक प्रतिकूल संतुलन और गैर-टैरिफ बाधा आदि मुद्दों पर अन्य 15 देशों के साथ मतभेद होने की वजह से वर्ष 2019 में आरसीईपी वार्ता में हटने की घोषणा कर दी थी।  

दरअसल दुनिया में प्रसिद्ध अन्य मुक्त व्यापार समझौतों की तुलना में आरसीईपी एक नये प्रकार का मुक्त व्यापार समझौता है। आंकड़ों के अनुसार 15 सदस्य देशों की कुल जनसंख्या करीब 2 अरब 30 करोड़ है, जो दुनिया की 30 प्रतिशत आबादी है। वहीं 15 सदस्य देशों का कुल जीडीपी 250 खरब डॉलर से अधिक है। RCEP से जुड़ा क्षेत्र दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बनेगा। इसके साथ RCEP में माल व्यापार, विवाद निपटान, सेवा व्यापार और निवेश आदि मुद्दों के साथ बौद्धिक संपदा अधिकार, डिजिटल व्यापार, फाइनेंस और टेलीकॉम आदि नये विषय भी शामिल हैं। 

RCEP विभिन्न देशों में आर्थिक बहाली और लंबे समय के समृद्धि व विकास बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। व्यापार उदारीकरण की प्रक्रिया तेज होने के चलते क्षेत्रीय आर्थिक और व्यापारिक विकास बढ़ाया जाएगा। RCEP का लाभ सीधे ग्राहकों और उद्यमों तक पहुंचाया जाएगा। जिससे ग्राहकों को बाजार में ज्यादा विकल्प मिलेंगे और उद्यमों की व्यापार लागत काफी हद तक कम होगी। 

हालांकि RCEP के मंत्रियों की एक घोषणा पत्र में कहा गया है कि भारत इस समूह में शामिल होने को लेकर लिखित अनुरोध करता है, तो इस पर हस्ताक्षर करने वाले देश उसकी भागीदारी पर बातचीत करने के लिये तैयार हैं। इन देशों ने कहा है कि समझौते में भारत के लिये दरवाजे खुले रहेंगे। अब जिन देशों ने RCEP समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं, उनमें आसियान देशों (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रुनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार और कंबोडिया) तथा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं।  

रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) ने भारत को ऑब्जर्वर मेंबर के तौर पर हालांकि आमंत्रित किया है। साथ ही भविष्य में पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर शामिल होने के लिए जगह भी छोड़ी है। भारत ने RCEP में शामिल न होने का कारण बढ़ते व्यापार घाटे को बताया था और कहा था कि आरसीईपी में शामिल होने का मतलब है भारत के बाजारों में चीनी सामानों की भरमार। इससे भारत की आंतरिक अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता। 

क्या है RCEP?

RCEP एक ट्रेड एग्रीमेंट है जो सदस्य देशों को एक दूसरे के साथ व्यापार में सहूलियत देता है। इस समझौते के तहत सदस्य देशों को आयात-निर्यात पर लगने वाला टैक्स या तो भरना ही नहीं पड़ता या फिर बहुत कम भरना पड़ता है। इस एग्रीमेंट पर आसियान के 10 देशों के साथ-साथ पांच अन्य देश ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं। आरसीईपी के तहत दुनिया की कुल जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा आता है, लेकिन इसमें चीन का एकाधिकार है।  

हालांकि 2019 में जब भारत ने आरसीईपी से बाहर रहने का फैसला किया था उस समय कांग्रेस सहित सभी ने इसे एक अच्छा फैसला बताया था। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्‍वय समिति से जुड़े स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने आरसीईपी से बाहर रहने के भारत के फैसले को अहम बताते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री ने जनमत का सम्मान किया है। 

योगेंद्र यादव ने कहा था कि बहुत बड़ा और गंभीर फैसला है। आरसीईपी में शामिल होना भारत के किसानों के लिए, भारत के छोटे व्यापारियों के लिए बड़े संकट का विषय बन सकता था। आगे चलकर इसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता था।  

वैसे यहां तक कि सरकार के नज़दीक मानी जानी वाली अमूल डेयरी ने भी इसका विरोध किया था। भारत अगर ये समझौता कर लेता तो न्यूज़ीलैंड से दूध के पाउडर के आयात के चलते भारत का दूध का पूरा उद्योग ठप पड़ जाता। किसानी-खेती की बात करें तो इस समझौते के बाद नारियल, काली मिर्च, रबर, गेहूं और तिलहन के दाम गिर जाने का खतरा था। छोटे व्यापारियों का धंधा चौपट होने का खतरा था। 

जहां तक चीन का सवाल है, वो पहले से आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध देश है और पूर्व-एशियाई देशों में उसकी पहुंच भारत से ज़्यादा है। जब भी इस तरह की व्यापारिक बातचीत होगी तो चीन यहां फायदे की स्थिति में होगा. जबकि भारत के पास वो फायदा नहीं है। पूर्व-एशियाई देशों से हमारे उस तरह के व्यापारिक रिश्ते नहीं है।  

इन 16 देशों में दुनिया की लगभग 45 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। दुनिया के निर्यात का एक चौथाई इन देशों से होता है। दुनिया की जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा इन देशों से ही आता है। इन आंकड़ों के चलते यह दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक समझौता होगा। इस समझौते में 25 हिस्से होंगे। इनमें से 21 हिस्सों पर सहमति बन गई है। अब निवेश, ई कॉमर्स, उत्पादों के बनने की जगह और व्यावसायिक उपचारों पर सहमति होनी है। 

हालांकि इसका दूसरा पहलू यह है कि आरसीईपी में शामिल क्षेत्रों में काम कर रही भारत की कंपनियों को एक बड़ा बाजार मिल सकता था। इस समझौते के बाद घरेलू बाजार में मौजूद बड़ी कंपनियों और सेवा प्रदाताओं को भी निर्यात के लिए एक बड़ा बाजार मिल सकता था। साथ ही भारत में इन देशों से आने वाले उत्पादों पर टैक्स कम होगा और ग्राहकों को कम कीमत पर ये सामान उपलब्ध हो सकेंगे। 

भारत के सामने सबसे बड़ी परेशानी है उसका व्यापार घाटा। जब किसी देश का आयात उस देश के निर्यात से ज्यादा हो तो इस स्थिति को व्यापार घाटा कहा जाता है। इन 16 देशों के साथ होने वाले व्यापार में भारत 11 देशों के साथ व्यापार घाटे की स्थिति में है। मतलब भारत इन देशों से जितना सामान खरीदता है उससे कहीं कम उन्हें बेचता है। इनमें सबसे बड़ा व्यापार घाटा चीन के साथ है। 2014-15 में नरेंद्र मोदी की सरकार के सत्ता में आने पर भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 2600 अरब रुपए था जो 2018-19 में बढ़कर 3700 अरब रुपए हो गया है। भारत के लिए बड़ी चिंता आर्थिक मंदी भी है।  

दूसरी चिंता ये है कि जिस तरह भारत की कंपनियों को एक बड़ा बाजार मिलेगा वैसे ही दूसरे देशों की कंपनियों को भी भारत जैसा बड़ा बाजार मिलेगा। ऐसे में चीन समेत सभी दूसरे देश सस्ती कीमतों पर अपना सामान भारतीय बाजार में बेचना शुरू करेंगे। इससे भारतीय बाजार के उत्पादकों को परेशानी होगी। इसका उदाहरण बांग्लादेश से दिया जा सकता है। भारत और बांग्लादेश के बीच मुक्त व्यापार का समझौता है। इससे बांग्लादेश में बनने वाला कपड़ा सस्ती दरों पर भारत में उपलब्ध होता है। इसके चलते भारतीय कपड़ा उद्योग को बहुत नुकसान हुआ है। खेती के बाद दूसरे नंबर पर रोजगार प्रदान करने वाले कपड़ा उद्योग में करीब 10 लाख लोगों का रोजगार खत्म हो गया। आरसीईपी से इस तरह का असर सबसे ज्यादा डेयरी और स्टील उद्योग पर पड़ने के आसार हैं। विदेशों से सस्ते डेयरी उत्पाद और स्टील आने से भारतीय बाजार को नुकसान होगा। 

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